शिव महिम्न: स्तोत्रम शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ क्षन्दो के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है|
स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी |
कथा कुछ इस प्रकार के है …
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे |
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए |
पर ये तो आरम्भ मात्र था …
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा |
और फिर …
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया| रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर क्या था| इससे पुष्पा दंत की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया|
तब…
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था | अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप को पुनः प्रदान किया |
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशीस्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः .. १..
हे हर !!! आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भे अपने यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ|
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोःअतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयःपदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः .. २..
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठीण है मैं आपका वंदना करता हूँ|
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतःतव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् .मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतःपुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता .. ३..
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपने सिमित क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धी का विकास होगा |
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणींविहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः .. ४..
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं| आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है| इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है |
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनंकिमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च .अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियःकुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः .. ५..
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिस करते हैं| वो कहते हैं की अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इसा श्रिष्टी को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं| वेद ने भी स्पष्ट किया है की तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतांअधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति .अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरोयतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे .. ६..
हे परमपिता !!! इस श्रृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)| इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य हे की आप पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमितिप्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च .रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषांनृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव .. ७..
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं | पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनःकपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितांन हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति .. ८..
हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित रहते हैं |
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदंपरो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये .समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इवस्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता .. ९..
हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है पर मेरी भक्ति आप में और दृढ होती जा रही है |
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधःपरिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः .ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति .. १०..
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाए| क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरंदशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेःस्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् .. ११..
हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था|
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनंबलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसिप्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः .. १२..
हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा| वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा| अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका|
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतींअधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोःन कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः .. १३..
हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक अश्वर्यशाली बन सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया| हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं है?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपाविधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः .स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहोविकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः .. १४..
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए| हे हर तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है की ये विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है| कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरेनिवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः .स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः .. १५..
हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव ही | पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता|
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदंपदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् .मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटाजगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता .. १६..
हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती है, आपके हाथो के परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है| आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे महादेव कि अनेको बार कल्याणकरी कार्य भे भय उतपन्न करते हैं |
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिःप्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमितिअनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः .. १७..
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है|
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथोरथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति .दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिःविधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः .. १८..
ही शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है| आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोःयदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषःत्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् .. १९..
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं.
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतांक्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवंश्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः .. २०..
हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया| आपके ही विधान से अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं|
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतांऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः .क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनःध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः .. २१..
हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसा परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है| दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ| आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरंगतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुंत्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः .. २२..
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरु धारण करा भागने की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं|
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः .. २३..
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिस की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया|
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराःचिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः .अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलंतथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि .. २४..
हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं, भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं| ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते|
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतःप्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः .यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमयेदधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् .. २५..
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में आपही हैं हे महादेव!!!
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहःत्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च .परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरंन विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि .. २६..
हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति .तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिःसमस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् .. २७..
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों, तथा त्रिदेवों को इंगित करता है| हे ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के समागम हैं|
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् .अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपिप्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते .. २८..
हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से स्तुति करता हूँ |
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमःनमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः .नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमःनमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः .. २९..
हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी| आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी |
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमःप्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमःप्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः .. ३०..
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ | हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदंक्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः .इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् .. ३१..
हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूँ |
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रेसुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालंतदपि तव गुणानामीश पारं न याति .. ३२..
यदि कोइ गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है|
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार .. ३३..
इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है तो गुनातीत हैं |
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः .स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्रप्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च .. ३४..
जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है|
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् .. ३५..
महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से उपर कोई सत्य नहीं.
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः .
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् .. ३६..
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते |
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजःशशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः .. ३७..
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया |
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुंपठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः .व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानःस्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् .. ३८..
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है |
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् .अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् .. ३९..
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है |
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः .अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः .. ४०..
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है | प्रभु हमसे प्रसन्न हों|
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः .. ४१..
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता| हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता उसको नमस्कार है |
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः .सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते .. ४२..
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है |
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेनस्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेनसुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः .. ४३..
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |
.. इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः
स्तोत्रं समाप्तम् ..
इस प्रकार शिव महिम्न स्तोत्र समाप्त होता है |
he prabhu aaphi aaj bhi har dharm me alag-alag nam se poojit hain ,,,,,
kahin Khuda , God ban, kahin Swayambhu Shiv shushobhit hain,,,,,,,
teeno ke arth ek hi hain——
Khuda—- jo khud hi aaya,,,,
God ——-jo “G”generate,,, “O”oprate,,,,”D” distroy ,,,,,
Shwambhu SHiv—-jo shwam prakat huaa
Shiv me hi sara brahmaand vyapt hai,, jiska na aadi ka pata na ant ka pata ,,,Bhagvan Brahma aur Bhagvan Vishnu bhi nahi pata laga sake,,,,o aboojh hai,,,anant hai ,,,kya hai ,, kaun jaane ,,,,,sirf vahi jaane…….Om Namah Shivay
aadi, anaadi, anant,… he prabhu aap sarvshaktimaan, sarvagya, sab kuch janne wale hai. Aap jo hi karte hai kuch achhe ke liye hi karte hai, wo to bas insaan hi hai jo aapke kiye ko bigadne me laga rahta hai, he prabhu unko maaf kar aap sadbuddhi de taki sansaar me shanti bani rahe.
हे प्रभु!आप आदि है आप अन्नंत है,आप दया के सागर है,हम प्रेम के भिखारी है|आप क्या नहीं कर सकते है,हम आपके हैं,हम आप से हैं,आप हमारी लाज रखिये|तन,मन,धन सब आप का है|आप ही हमारे माता-पिता है जिस तरह से माता पिता अपने बच्चों कि गलतियों को उनकी नादानी समझ कर माफ कर देतें है उसी तरह आप भी हमारी गलितियों को माफ करिये|
very good information.. Thanks..
OM NAMAH SHIVAY
THANKS O LOT DHANYA KAR DIYA AAAPKA DIL SE AABHAR
SHIV SHIV SHIV
mia bhi shiv ka klyugi bhakt hu aur apne itne saf suthre dhang se ise prastut kiya hai aapko koti koti naman omn namah shivay
Ohm Namah Shivay!
ओम नमः शिवाय
बहुत सुंदर विवरण है
It’s a really a great website…..
i have never seen kind of the website which you have made it…
great work..
Ohm Namah Shivay!
ओम नमः शिवाय
Thanks for posting Shiv Mahima Stotram. please keep it up.
Could you please post the shiv Stotram created by lard krishan for Son?
Thanks for posting Shiv Mahima Stotram. please keep it up.
Could you please post the shiv Stotram created by lord krishna for Son?
om namah shivay
AAP KE IS PRAYAS SE HAME STROT KE RAHASYA KA PATA CHALTA HAI, IS SE HAMARI AASHTHA AUR BADH JATI HAI AUR HAM BHAV SE STROT KA PATHAN KAR SAKTE HAI
OM NAMAH SHIVAY
it is a very powerful stotram of lord shiva
it can give desire matter
Shiv=thats mean “Shubh”.
har tarah se shubh aur kalyankari.
I am realy happy to visit your site but i request you to if possible upload ravan rachit shiva stotra on this site.
आशुतोष तुम औढर दानी
आरत हरहु दीन जन जानी
शिव ताण्डव स्त्रोत के लिए इस पृष्ठ पर देखें http://shivalaya.vnc.in/hi/shiva-tandava-strottam.html
Pure Bramand Me Ek Shiv Hi Satya Hain
Har har mahadev
Vishwa Nath Mam Nath Purari
Tribhuwan Mahima Vidit Tumhari.
It is realy good Strotam
Vishwa Nath Mam Nath Purari
Tribhuwan Mahima Vidit Tumhari.
Mahadev ke gungan karne ke liye sari umra kum padjaygi. BholeBhandari ko koti koti namah.
That will never end is lord shiv shiv shiv shiv
Can you please tell me what is the name of Hindi font used here?
Thanks for sharing you wonderful work..:)
it’s standard for Hindi on web
excellent work keep it up OM NAMAH SHIVAY
he mahadev apko koti koti pranam hme in stroto ko pad lr bht sukhad anubhuti hoti h.
O LORD SHIVA! I ALWAYS REMEMBER TO YOU.I AM A PART OF YOU.SO KEEP YOUR GRACE ON ME ………………..HAR HAR MAHADEV
har har mahadev………..
Aaj is Shivmahimnh stotram jo ki Sh. Pushpdant ji ke dwara rachit hai ko padkar bahut hi aatmik shanti ki anubhuti hui hai. Is amulya stotar ko yahan post karne ke liye bahut-2 dhanyabad. Bholenath sabki manokamna puran karen. Om namah Shivaye. Om namah shivaye Om namah shivaye Om namah Shivaye. Har har Mahadev. Bam Bam Bhole. Bam Bam Bhole.
SHIV HI VISHWA KA AADHAR HAI.
NAMASHIVAY
He Baba bhole nath aap ki jai ho, aap sarv vayapak h, badi se badi aapda ko aap hi tal saket h, aap. hi manav sarir me nivas karne wali aatma h, manuse aap hi ka ans h, ass hamere mata pita h , jivan me hue galtiyo ko maf karo or prasann hovo praboo,
he shivay meri aap se ek hi prartana ki aap muj agyani par kripa karo aao meri kamana puri karo
jai baba bhole nath……….
HAR HAR MAHADEV
हर हर महादेव